Tuesday, April 12, 2011

नाले में तब्दील होती यमुना


यमुना में बढ़ते प्रदूषण पर लेखक की टिप्पणी
यदि आपके मन में यमुना नदी को निकट भविष्य में स्वच्छ देखने की कोई लालसा पल रही हो तो उसे अपने मन से निकाल दें, क्योंकि 2015 से पहले यह कतई संभव नहीं है। यह बात किसी और ने नहीं बल्कि पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने यमुना की जमीनी स्थिति का आकलन करने के बाद कही। यमुना की गंदगी दूर करने की मुहिम में दिल्ली सरकार अब तक 4,000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा खर्च कर चुकी है, लेकिन यमुना नदी का प्रदूषण घटने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि यमुना के पानी में अमोनिया की मात्रा इतनी ज्यादा हो गई है कि उसे साफ करना यहां के जलशोधक संयंत्रों के लिए भी संभव नहीं रह गया है। अमोनिया के साथ-साथ अन्य घातक रसायन भी पानी में जहर घोल रहे हैं। 16 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: सज्ञान लेते हुए दिल्ली में यमुना को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सुनवाई शुरू की थी। कोर्ट के निर्देश पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पिछले 11 सालों से नदी की गंदगी का स्तर नाप रहा है। बोर्ड के मुताबिक दिल्ली में 22 किलोमीटर में बहने वाली यमुना कुल नदी की लंबाई का दो फीसदी हिस्सा है, लेकिन पूरी नदी की गंदगी में इसका 70 फीसदी योगदान है। इस पर टिप्पणी करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि दिल्ली की गंदगी साफ करते-करते यमुना अपना स्वरूप खोकर गंदा नाला बन चुकी है। वजीराबाद से पहले यमुना नदी अपेक्षाकृत साफ रहती है, लेकिन उसके बाद वह लगभग एक नाले में तब्दील हो जाती है। कई साल से दिल्ली सरकार भरोसा दिला रही थी कि राष्ट्रमंडल खेल शुरू होने से पहले यमुना को टेम्स नदी की तरह निर्मल बना लिया जाएगा। यमुना सफाई अभियान के नाम पर काफी रकम खर्च की गई। पर इतने साल बीत जाने के बाद भी यमुना की सेहत में कोई सुधार नहीं आ पाया है। दरअसल यमुना को स्वच्छ रखने के अभियान में आम लोगों को विश्वास में नहीं लिया गया। सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट के सीवर-पाइप छोटे रखे गए जबकि पानी का बहाव अधिक था। लोगों ने पॉलीथिन भी सीवरेज में डालनी आरंभ कर दी। शहर में चले रहे कल-कारखानों को दिल्ली से बाहर बसाने की मुहिम चलाई गई। जगह-जगह जल-मल शोधन संयंत्र लगाए गए लेकिन स्थिति यह है कि अब भी हजारों कारखाने रिहाइशी इलाकों के आसपास बने हुए हैं और ज्यादातर शोधन संयंत्र काम करना बंद कर चुके हैं। यदि गहराई से देखा जाए तो यमुना ही नहीं दूसरी नदियों और समुद्र तटों को भी गंदे नाले में तब्दील करने में अनियोजित शहरीकरण की मुख्य भूमिका है। शहरों के विकास-क्रम में तटीय इलाकों में निर्माण कायरें के अलावा औद्योगिक और घरेलू कचरे और सीवर की गंदगी के निपटारे के लिए नदियों को एक आसान जरिया मान लिया गया। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के एक अध्ययन के मुताबिक देश भर में 900 से अधिक शहरों और कस्बों का 70 फीसदी गंदा पानी पेयजल की प्रमुख श्चोत नदियों में बिना शोधन के ही छोड़ दिया जाता है। नदी प्रदूषण में औद्योगिक कचरे की भी कम भूमिका नहीं है। औद्योगिक कचरे को शहरों से लगी नदियों में बहा देने की जो प्रथा अंग्रेजों के समय में शुरू हुई थी उसे स्वतंत्र भारत की सरकारों ने आंख मूंद कर अपना लिया। देश में जिस रफ्तार से औद्योगिक गतिविधियों का विस्तार हुआ उसी गति से नदियों में प्रदूषण बढ़ता गया। जो कायदे-कानून बने भी उनका कड़ाई से पालन नहीं किया जा सका। हर स्तर पर फैले भ्रष्टाचार और जवाबदेही तय न होने के चलते नदियों को साफ-सुथरा बनाने के लिए आवंटित किए गए अरबों रुपये निर्धारित मकसद में नहीं लगे। नदियों में प्रदूषण का मुद्दा जोर-शोर से उठने लगा तो 15 साल पहले केंद्र ने राष्ट्रीय नदी संरक्षण प्राधिकरण का गठन किया। लेकिन सालों से इसकी संचालन समिति की कोई बैठक ही नहीं हुई है जबकि नियमत: हर तीन महीने में ऐसी बैठक होनी चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

No comments:

Post a Comment