आज से कोई पांच दशक पहले का समय याद आता है, जब गांव में अपने घर के आंगन में गौरैया बेखौफ फुदकती रहती थी और घर के लोगों को उसका फुदकते रहना, चहचहाना बहुत भाता था। उसकी चहचाहट को घर के लोग शुभ मानते थे, लेकिन आज उसी गौरैया के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। ऐसा लगता है कि उसके बिना घर का आंगन सूना-सूना सा होकर रह गया है। असलियत तो यह है कि भारत, यूरोप, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और कई अमेरिकी देशों में पाई जाने वाली गौरैया अब महानगरों के अलावा कस्बों और गांवों से भी लुप्त हो चुकी है। यदि कहीं कभी-कभार एकाध बार उसके दर्शन हो गए तो आप खुशकिस्मत हैं। दरअसल हमारी घरेलू गौरैया यूरेशिया में पेड़ों पर पाई जाने वाली गौरैया से काफी मिलती है। देखा जाए तो केवल छोटे कीड़े और बीजों के ऊपर निर्भर तकरीब 4.5 इंच से 7 इंच लंबी और 13.4 ग्राम से 42 ग्राम वजन वाली घरेलू गौरैया कार्डेटा संघ और पक्षी वर्ग की चिडि़या है। इसका रंग भूरा, पूंछ छोटी और चोंच मजबूत होती है। जहां तक देश में इसकी तादाद का सवाल है हमारे यहां पक्षियों की तादाद जानने के लिए मुंबई में बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी सलीम अली सेंटर फॉर आर्नियोलॉजी ऐंड नेचुरल हिस्ट्री है, लेकिन विडंबना यह है कि गौरैया से संबंधित इन दोनों ही केंद्रों के पास कोई जानकारी नहीं है। सरकार के पास भी नहीं। यदि बात यूरोप की करें तो वहां पक्षियों की संख्या की जानकारी के लिए एक पूरा तंत्र मौजूद है, लेकिन दुख इस बात का है कि गौरैया के बारे में यह तंत्र भी नाकाम साबित हुआ है। यदि बीते सालों में कुछ निजी आकलन पर गौर करें तो पता चलता है कि वहां कुछेक सालों में ही तकरीब 85 प्रतिशत गौरैया की तादाद घट गई है। इसकी विलुप्ति के कारणों पर नजर डालें तो पता चलता है कि इसके पीछे अनगिनत कारण हैं। सबसे पहला कारण तो आदमी के रहन-सहन के तरीकों में बदलाव है जिसके चलते गौरैया का जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। नए-नए तरीकों से बनते बहुमंजिला मकानों की वजह से उनकी छतों पर गौरैया को अपने घोंसले बनाने की जगह ही नहीं रही। घर की स्ति्रयों द्वारा गेहूं भिगोकर घर के आंगन में सुखाने की प्रवृत्ति के कारण गौरैया ने घरों से मुंह मोड़ लिया। देश में दिन-ब-दिन बढ़ती टॉवर संस्कृति और पर्यावरण प्रदूषण के कारण इनकी संख्या कम हो रही है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि बढ़ते मोबाइल टावरों के विकिरण के कुप्रभाव से गौरैया के मस्तिष्क और उनकी प्रजनन क्षमता पर घातक असर पड़ रहा है। साथ ही वे दिशा भ्रम की शिकार होती हैं सो अलग। विकसित व विकासशील देशों में अनलेडेड पेट्रोल के बाई प्रोडक्ट गौरैया के प्रिय आहार छोटे कीड़ों को खत्म कर देते हैं। दरअसल अनलेडेड पेट्रोल के जलने से बनने वाले मिथाइल नाइट्रेट नाम के बेहद जहरीले यौगिक से छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े खत्म हो जाते हैं। ये कीड़े-मकोड़े ही गौरैया का प्रिय आहार हैं, जिनको वह बड़े चाव से खाती हैं। जब वे ही उसे खाने को नहीं मिलेंगे तो वह जिएगी कैसे? इस बारे में कोई नहीं सोचता। इसकी तादाद में आई बेतहाशा कमी ने इस प्रजाति के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। इन हालात में तो ऐसा लगता है कि अब वह दिन दूर नहीं जबकि गौरैया के दर्शन ही दुर्लभ हो जाएंगे। दरअसल बीते एक-डेढ़ दशक से गौरैया की तादाद में जो अभूतपूर्व कमी देखने में आई है वह चिंता का विषय है। इस तथ्य को तो दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी स्वीकारा है कि आज बच्चे अपनी-अपनी कालोनियों में गौरैया को ढूंढ़ते रहते हैं और वह उन्हें नहीं दिखते। वह इस बात को मानती हैं कि गौरैया की घटती तादाद के लिए बहुमंजिली इमारतों का बढ़ता चलन नुकसानदायक है। गौरैया को अपना घोंसला बनाने के लिए पुराने घरों की तरह जगह न मिल पाना, घोंसले बनाने की खातिर कबूतरों से संघर्ष, उनके खाने की कमी, कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग, माइक्रोवेव प्रदूषण, शहरों में बढ़ रहा बिजली के तारों का जाल और सुपर मार्केट संस्कृति जैसे अहम कारण हैं जिसके चलते वह हमसे दूर होती जा रही है। हो सकता है यह कहना कुछ अतिशयोक्ति लगे, लेकिन मौजूदा हालात और इंसान के आसपास का वातावरण यह साबित करता है कि कुछ-न-कुछ गड़बड़ जरूर है जिसके चलते आज गौरैया का अस्तित्व बहस का मुद्दा बना हुआ है। सच तो यह है कि अक्सर मानव आबादी यानी घर-परिवारों के आस-पास रहना पसंद करने वाली गौरैया के लिए शहरीकरण और मनुष्य की बदलती जीवन शैली में कोई जगह नहीं रह गई है। आज व्यक्ति के पास इतना समय भी नहीं रह गया है कि वह अपनी छतों पर कुछ जगह ऐसी खुली छोड़े जहां वे अपने घोंसले बना सकें। यह भी नहीं कर पाने की स्थिति में वह नालियों, डस्टबिन व सिंक में बचे हुए अन्न के दानों को बहने देने से बचाए और उनको छत पर खुली जगह पर डाल दे, ताकि उनसे गौरैया अपनी भूख मिटा सके। यही कारण है कि आज वह भूखों मर रही हैं। आज सरकार में ऐसा कोई नेता नहीं है जो पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशील हो और उनके बारे में कुछ जानकारियां रखता हो और उन्हें पहचानता हो। इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम है। एक बार भरतपुर प्रवास के दौरान जब वह वहां स्थित केवलादेव पक्षी विहार गई तो उन्होंने वहां तकरीब 80 चिडि़यों को उनके नाम से पहचान कर उपस्थित अधिकारियों-नेताओं व कार्यकर्ताओं को चकित कर दिया। हमारे यहां समूची दुनिया में एक मात्र व्यक्ति जो बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी से जुड़े हैं, वह हैं नासिक के शोधकर्ता दिलावर मोहम्मद खान। वह पिछले पांच सालों से गौरैया को बचाने के अभियान में लगे हैं। उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है। इसके लिए टाइम पत्रिका ने पिछले साल उन्हें हीरो का पुरस्कार देकर सम्मानित किया है। अब सरकार ने तीन साल में गौरैया की तादाद का पता लगाने का जिम्मा उन्हें सौंपा है। इसके अलावा गौरैया को बचाने के बारे में सभी प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। इस दिशा में जो प्रयास किए जा रहे हैं, उन पर नजर डालें तो पता चलता है कि इसी साल 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाने की घोषणा की गई। यही नहीं हेल्प हाउस स्पैरो नाम से समूचे विश्व में अभियान भी चलाया गया, लेकिन सरकार की ओर से कोई सकारात्मक पहल होती दिखाई नहीं दी। यहां तक कि गौरैया को बचाने की दिशा में सरकार ने कोई घोषणा तक नहीं की और न कोई कार्यक्रम बनाया। पहले ही से देश में जीव-जंतुओं की हजारों प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट है, उसमें गौरैया और शामिल हो जाएगी तो सरकार पर कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं। सरकारों का तो रवैया ही ऐसा रहा है, वह तब तक कुछ नहीं करती जब तक कि हो-हल्ला न मचे। प्रथम विश्व गौरैया दिवस का हश्र सबके सामने है। इस बारे में अभी भी सब मौन हैं। आगे क्या होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। दुख इस बात का है कि सरकार गौरैया बचाने की जगह उसकी संख्या पता करवाने पर जोर दे रही है, जो उसकी सोच का परिचायक है कि आखिर वह करना क्या चाहती क्या है|
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