Friday, April 1, 2011

बाघ तो बढ़े, अब निवाले का करो इंतजाम


पैंसठ फीसदी वन भूभाग वाले उत्तराखंड में गुलदार पहले से ही ज्यादा हैं, अब बाघों का कुनबा भी बढ़ गया है। जरा सोचिए कि जब इन जानवरों के लिए जंगल में भोजन नहीं होगा तो क्या होगा। ये तभी सुरक्षित रह पाएंगे, जब इनके जीने के संसाधनों पर ही उतना ही फोकस हो, जितना संख्या बढ़ाने पर। फूडचेन गड़बड़ाई तो इनका जीवन खतरे में पड़ना तय है। अच्छा हो कि मानव-वन्यजीव संघर्ष से भी इतर सोचने की कोशिश हो और पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखने को गंभीरता से प्रयास हों। उत्तराखंड में गुलदार पहले ही आफत का सबब हैं। भले ही विभाग का आंकड़ा 2335 गुलदारों की मौजूदगी की बात कहें, लेकिन जिस तेजी से ये बढ़ रहे हैं उसने पहाड़ हो या मैदान सभी जगह इनके खौफ ने नींद उड़ाई हुई है। अब बाघों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है और कार्बेट लैंडस्केप में ही इनकी तादाद 227 पहुंच गई है। फिर बाघों के हमले भी कम थोड़े ही हैं। हम बाघ और गुलदारों की संख्या बढ़ने पर इतरा तो रहे हैं, लेकिन उन कारणों के निदान की दिशा में चुप्पी साधे हैं, जिनकी वजह से यह सब स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। यह मान लेना कि जंगलों में मौजूद बाघ, गुलदार के भोजन को लोग खा रहे है, एकतरफा दोषारोपण ही माना जाएगा। वन विभाग के गेस्टहाउसों, जंगलों से सटे रिजॉर्ट, रेस्टहाउसों में विभिन्न मौकों पर जो मजमे लगते हैं, उनकी हकीकत किसी से छिपी नहीं है। यह भी सोचने की जरूरत है कि जंगल वन्यजीवों के अनुरूप हैं या नहीं। मिश्रित वन सिमटे हैं। इनकी जगह एक ही प्रजाति के वनों को बढ़ावा दिया जा रहा है। हमने वन एवं वन्यजीवों की अनदेखी कर विकास को सेंट्रलाइज किया तो इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। ध्यान देने वाली बात यह के प्रोजेक्ट बनाकर बाघ बढ़ा भी लिए और वहां जीने का साधन नहीं होगा तो ये कब तक बचे रहेंगे। जंगल में भोजन नहीं होगा तो बाघ, गुलदार का क्या होगा। या तो खुद मरेंगे या संघर्ष में मारे जाएंगे। फिर कल्पना यह भी कीजिए कि जिस घर के चिराग अथवा कमाऊ पूत को बाघ-गुलदार ने मार डाला हो, उसके सदस्यों को कैसे इनके संरक्षण को प्रेरित किया सकता है|

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