यूरोप हो या अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया, अधिसंख्य पश्चिम देश भी भीषण बर्फबारी से परेशान हैं। मौसम में बदलाव का कहर लगभग सभी देश झेल रहे हैं, लेकिन धरती को कुदरत की मार से बचाने के लिए पिछले दिनों कानकुन में हुए सम्मेलन में दुनिया के तमाम देश किसी ठोस, कानूनी, बाध्यकारी नतीजे तक नहीं पहुंच सके। सम्मेलन में कोई आम सहमति नहीं बन पाई और अमेरिकी राष्ट्रपति के प्रयासों से बेसिक देशों के साथ उनका समझौता भी विकासशील देशों ने नामंजूर कर दिया, लेकिन अमेरिका और बेसिक देशों के बीच हुआ करार उत्सर्जन नियंत्रण प्रयासों पर सूचनाएं देने से आगे अंतरराष्ट्रीय परामर्श और विश्लेषण की बात करता है। भारत के पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने इस बारे में सफाई दी है कि परामर्श और विश्लेषण के नियम बेसिक समूह की रजामंदी और संयुक्त राष्ट्र प्रावधानों से तय होंगे। कुल मिलाकर भारत ने कोपेनहेगन सम्मेलन में जो रणनीति अपनाई, उससे वह अमेरिका के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। उसने जी-77 से अपने को अलग कर लिया है और अब जी-20 के करीब आ गया है। कोपेनहेगन में क्योटो समझौते को एकदम दरकिनार नहीं किया गया है, लेकिन निश्चित तौर पर इसे हल्का कर दिया गया है। वास्तव में क्योटो प्रोटोकाल धरती की रक्षा के बहाने समता पर आधारित लोकतांत्रिक दुनिया का एक चार्टर है। इसमें विभिन्न देशों की जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जो जिम्मेदारियां तय की गई हैं, वे एक न्यायिक नजरिए पर आधारित है। यह वही नजरिया है, जिसके लिए संयुक्त राष्ट्र का चार्टर जाना जाता है। लेकिन दुनिया के विकसित देश इस समझौते को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। वे अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए बेतुकी शर्तो को लागू करना चाहते हैं, जिसे विकासशील देश मानने के लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन दुनिया का आसमान बटा हुआ नहीं है। इसलिए इस क्योटो प्रोटोकाल पर देर-सबेर आम सहमति नहीं बनी तो इसका नतीजा सारी दुनिया को भुगतना पड़ेगा। अमेरिका की गिनती पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वालों में सबसे पहले होती है और वह किसी तरह क्योटो से पिंड छुड़ा पाया था। कोपेनहेगन में चीन, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीकी देशों के दबाव में अमेरिका ने 2005 के उत्सर्जन स्तर के आधार पर 2020 तक अपने उत्सर्जन में सिर्फ 4 फीसदी की कटौती की पेशकश की थी। अमेरिका कुल मिलाकर जितना उत्सर्जन कर रहा है, उसके हिसाब से उसकी कटौती बहुत कम है। दुनिया विकसित देशों के दोहरे मानदंड से जूझ रही है। कोपेनहेगन में भी विकासशील और कम विकसित देश बड़े देशों की नीतियों के शिकार हुए हैं। अधिसंख्य देश क्योटो प्रोटोकाल के बाध्यकारी प्रावधानों को और सख्त एवं व्यापक बनाकर जारी रखना चाहते हैं, लेकिन विकसित देशों का कहना है कि ये प्रावधान सभी पर समान रूप से बाध्यकारी हों। इसीलिए विकसित देश क्योटो प्रोटोकाल से परे एक नई संधि के पक्ष में हैं। दुनिया भर के वैज्ञानिक अब यह मानने लगे हैं कि आधुनिक औद्योगिक विकास और जीवनशैली का जो रास्ता हमने अपनाया है, वह हमें महाविनाश की ओर ले जा रहा है। इसके कारण आज पीने के लिए न तो साफ पानी है और न सांस लेने के लिए शुद्ध हवा। हमारे खाद्य पदार्थ भी प्रदूषित हो चुके हैं। लेकिन असली खतरा तो अब मौसम और जलवायु परिवर्तन के कारण शुरू हुआ है। इससे बाढ़, सूखा, तूफान और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ गई हैं और फसलों का चक्र बदलने के कारण पूरी दुनिया के सामने खाद्यान्न का खतरा पैदा हो गया है। यह संकट कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैसों के बेहिसाब इस्तेमाल के कारण धरती के गरमाने से पैदा हुआ है। औद्योगिक कल-कारखानों से निकलने वाले धुआं और कचरे के साथ-साथ मोटर गाडि़यों की बढ़ती संख्या से हमारा पर्यावरण गड़बड़ाया है। इसके अलावा फ्रिज और वातानुकूलित यंत्रों (एयर कंडीशनरों) से निकलने वाली गैसों से भी संकट बढ़ा है। इससे वातावरण में कार्बन डाइ आक्साइड, मीथेन आदि गैसों की अधिकता बढ़ी है, जिससे ग्लोबल वार्मिग का संकट पैदा हुआ है। पहले की अपेक्षा औद्योगिक काल में कार्बन डाइ आक्साइड 37 फीसदी और मीथेन 150 फीसदी बढ़ी है। अब इस वृद्धि पर लगाम नहीं लगाई गई तो इस दुनिया को महाविनाश से कोई नहीं बचा सकता है। अंटार्कटिका में बर्फ तेजी से पिघल रही है, ग्रीनलैंड और आर्कटिक समुद्र में बर्फ तेजी से घट रही है। समुद्री जल स्तर बढ़ रहा है। नए आंकड़े के अनुसार पिछले 15 वर्षो में समुद्री जलस्तर में पंाच सेंटीमीटर की वृद्धि हुई है। इससे समुद्र के निचले क्षेत्र के कई द्वीप डूब गए। सबसे पहले इसका शिकार प्रशांत एटोल का देश किरिबाती हुआ। 2006 तक तो पहला बसा हुआ द्वीप भी लहरों के नीचे गायब हो गया। समुद्र के कई तटीय देशों और क्षेत्रों के डूबने का खतरा पैदा हो गया है। इससे एक देश के नागरिक दूसरे देशों में पलायन करने के लिए बाध्य होंगे। इसका सबसे अधिक नुकसान बांग्लादेश जैसे गरीब देशों को उठाना पड़ेगा। बेमौसम सर्दी, गर्मी और बरसात ने एशियाई देशों की खाद्यान्न उपज पर गहरा प्रभाव डाला है। भारत में एक तरफ बांग्लादेश के नागरिक बड़ी संख्या में घुसपैठ कर रहे हैं तो दूसरी तरफ मौसम की मार से खाद्यान्न का संकट गहराता जा रहा है। जीवाश्म ईधनों पर अत्यधिक निर्भरता सारी दुनिया को और बदहाल बना सकती है। धरती के पर्यावरण को बिगाड़ने और जलवायु परिवर्तन के लिए विकसित और विकासशील दोनों तरह के देश जिम्मेदार हैं। इसलिए सब मिल जुलकर ही अपनी धरती को बचा सकते हैं। बड़े औद्योगिक देश भारी मात्रा में कार्बन डाइ आक्साइड और दूसरी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करके समृद्ध बने हैं। इसलिए उनके लिए यह चुनौती है कि अगले कुछ दशकों में उन्हें यह दिखाना होगा कि वे 2050 तक अपने उत्सर्जन में 80 फीसदी से अधिक की कटौती करने में कैसे सफल होंगी? अगले कुछ दशकों में विकासशील देशों को नई तकनीक का इस्तेमाल करके कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों से कार्बन डाइ आक्साइड का उत्सर्जन कम करके, वनों की कटाई रोक कर, दोबारा वन रोपण करके और तकनीक का व्यापक उपयोग कर ब्लैक कार्बन का बड़े पैमाने पर नियंत्रण और मीथेन व स्मॉग बनाने वाली गैसों का उत्सर्जन तेजी से कम करते हुए करना होगा। वायु प्रदूषण में कमी लाने के प्रयास अधिकतर देशों में पहले से ही शुरू हो चुके हैं, लेकिन उनकी रफ्तार अभी बहुत धीमी है। भारत और चीन में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन और ऊर्जा की खपत विकसित देशों से कम है। इसलिए दोनों देशों में समृद्धि बढ़ने के साथ ही ज्यादा से ज्यादा लोग अधिक मात्रा में ऊर्जा का उपयोग करेंगे और यदि 20 करोड़ से भी अधिक लोग उतनी मात्रा ऊर्जा का उपयोग करने लगे, जितनी कि पश्चिमी देशों में कुछ करोड़ लोग करते हैं तो दुनिया तबाह हो जाएगी। भारत और चीन के लोगों को भी बेहतर जीवनशैली का जीवन जीने का अधिकार है और उसके कारण उत्सर्जन का स्तर बढ़ेगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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