वर्ष 2010 अपनी खट्टी मीठी यादों के साथ हमें अलविदा कह चुका है। बीते साल यानी 2010 में पूरी दुनिया में तमाम तरह के उतार चढ़ाव देखने को मिले। लगातार विकास के दौर में गुजर रही दुनिया में कुछ चीजें पहले से बेहतर हो गई तो कुछ में सुधार व विकास का क्रम अभी भी चल रहा है, लेकिन इन सभी चीजों के साथ एक चीज ऐसी भी है, जो समय के साथ बद से बदतर होती जा रही है। यह है, लगातार बढ़ता ग्लोबल वार्मिग का खतरा। इस बढ़ते खतरे के बारे में हम कई वर्षो से सिर्फ लंबी-लंबी चर्चा ही कर रहे हैं, अभी तक ग्लोबल वार्मिग से निपटने के तरीके ही खोजे जा रहे हैं। इन्हें अजमाने की कोशिशें दूर-दूर तक नहीं दिख रही हैं। ग्लोबल वार्मिग के मुद्दे पर सबसे ज्यादा चिंता जताने वाला देश अमेरिका ही है, लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि पूरी दुनिया की कुल आबादी की मात्र 4 प्रतिशत आबादी वाला यह देश प्रदूषण फैलाने के मामले में पूरी दुनिया में अव्वल है। वर्ष 2010 में वातावरण की स्थिति पर यूनाइटेड नेशन क्लाइमेट समिट की जो रिपोर्ट जारी हुई, उस रिपोर्ट के आधार पर अमेरिका की कुल आबादी दुनिया के अन्य देशों की तुलना में काफी कम होने के बावजूद यह देश अकेले ही कुल कार्बन डाइ ऑक्साइड का 25 प्रतिशत उत्सर्जित करता है। जी, हां रिपोर्ट में अमेरिका को ग्लोबल वार्मिग बढ़ाने के लिए खतरा बताया गया है। यूनाइटेड नेशन क्लाइमेट समिट की रिपोर्ट में दुनिया के सभी छोटे बड़े देशों को इस रिपोर्ट का हिस्सा बनाया गया है। इस रिपोर्ट में जो परिणाम निकले हैं, वह सभी देशों की तुलना करके हासिल किए गए हैं। इन परिणामों के अनुसार ब्रिटेन जैसा समृद्ध देश वातावरण में 3 प्रतिशत तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के योगदान करता है। ब्रिटेन से 15 गुना ज्यादा आबादी होने के बावजूद हम ग्रीन हाउस उत्सर्जन के मामले में ब्रिटेन के बराबर ही हैं। इस रिपोर्ट के बाद अमेरिका को एक ऐसे देश के रूप में देखा जा रहा है, जो दुनिया को हरे भरे वातावरण की दुहाई तो देता रहता है, लेकिन खुद पर इसे लागू करने की जरा भी कोशिश नहीं करता है। ग्लोबल वार्मिग पर चिंता व्यक्त करने वाले संस्थानों ने इस रिपोर्ट के बाद अमेरिका को यह नसीहत देनी शुरू कर दी है कि धन संपदा की चकाचौंध के आगे अमेरिका यह समझ नहीं पा रहा है कि उसके देश में नागरिक हवा के रूप में सांस के जरिए घातक जहर शरीर के भीतर ले रहे हैं, जो उनकी जिंदगी के लिए खतरनाक हैं और रह-रहकर उन्हें खत्म कर रहा है। अमेरिका के साथ कई अन्य देशों को भी ग्रीन हास गैसों के उत्सर्जन में लगाम लगानी होगी। भारत को यदि अपनी प्राकृतिक धरोहरों को बचाना है तो प्रदूषण के स्तर को काफी हद तक कम करना होगा। भारत में प्रदूषण की मार झेलने में यमुना नदी काफी आगे है। वैज्ञानिकों का मानना है कि भारत में यमुना नदी का पानी 80 प्रतिशत तक प्रदूषित हो चुका है। यमुना नदी के पानी की अब यह हालत हो चुकी है कि इसमें नहाने से चर्म रोग हो जाते हैं और जानवर भी इस पानी को पीकर बीमार होने लगे हैं। यमुना के इस तरह प्रदूषित होने की मुख्य वजह इसमें प्रवाहित किया जाने वाला टेनरी व अन्य हानिकारक फैक्टि्रयों से निकलने वाले घातक रसायन हैं। इसके अलावा आम भारतीय भी देश की तमाम नदियों को अपनी धार्मिक गतिविधियों के चलते प्रदूषित करने के दोषी हैं। देश में जिस तेजी से नदियों का जल प्रदूषित हो रहा उससे भविष्य में भारत को पीने योग्य पानी की किल्लत का सामना करना पड़ेगा। कुछ ऐसी ही स्थिति पेरू की भी है। पेरू की राजधानी लीमा को वायु प्रदूषण के मामले में दुनिया के प्रदूषित शहरों में से एक माना जाता है। साल दर साल लीमा में वायु प्रदूषण का स्तर ऊंचा होता जा रहा है। लीमा शहर का जिस तेजी से औद्योगीकरण हो रहा है, उससे वहां की आबोहवा जहरीली होती जा रही है। इस शहर में वायु प्रदूषण का स्तर इस हद तक बढ़ चुका है कि यहां फेफड़ों से संबंधित बीमारी के मरीज तेजी से बढ़ रहे हैं। ग्लोबल वार्मिग के लगातार बढ़ने के पीछे विकसित देशों की बड़ी भूमिका है। ज्यादातर देश प्रदूषण का स्तर कम करने में नाकामयाब साबित होते जा रहे हैं। इसका प्रभाव इन देशों के नागरिकों पर तो पड़ ही रहा है, इसके अलावा ओजोन लेयर की समस्या भी बढ़ती जा रही है। समृद्ध देशों का और भी समृद्ध होते जाना भी ग्लोबल वार्मिग के बढ़ने की एक मुख्य वजह है। एक सर्वे के अनुसार, इस समय जितनी भी महंगी और आधुनिक कारें आ रही हैं, वे वातावरण को नुकसान पहुंचाने में विशेष भूमिका निभाती हैं।
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