जैव विविधता के धनी उत्तराखंड में वन्य जीवों पर छाए संकट के बादल छंटने का नाम नहीं ले रहे। वन्य जीवों की खालों और अंगों की अक्सर होने वाली बरामदगी से जाहिर है कि सूबेभर में फैले शिकारियों के नेटवर्क को नेस्तनाबूद करने में वन महकमा अब तक नाकाम ही रहा है। वह भी तब जबकि इसके लिए भारी-भरकम सरकारी तामझाम उसके पास है। इससे उन दावों की कलई भी खुलकर सामने आ गई है, जो वन्य जीव सुरक्षा के मद्देनजर गाहे-बगाहे किए जाते रहे हैं। जो बातें सामने आ रही हैं, उनमें यह साफ है कि सूबे में दो तरह के शिकारी सक्रिय हैं। एक तो स्थानीय, जो वन्य जीवों का शिकार कर वक्त आने पर खाल अथवा अंगों को बेचते हैं। दूसरे वे शिकारी हैं जो बाहरी राज्यों से यहां आकर अपने कारनामों को अंजाम देकर निकल जाते हैं। अब तो अंतर्राष्ट्रीय माफिया की नजर भी यहां के वन्य जीवों विशेषकर, गुलदार, बाघ, हाथी, भालू जैसे जीवों पर गड़ी हुई है। इतना सब होने के बाद भी वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार महकमा शिकारियों पर नकेल कसने की दिशा में नाकाम ही साबित हुआ है। उसकी कार्रवाई अक्सर दूसरी संस्थाओं के साथ मिलकर खालों और अंगों की बरामदगी तक ही सीमित होकर रह गई है। जाहिर है अभी तक विभाग अपना ऐसा तंत्र विकसित नहीं कर पाया है, जिससे वन्य जीवों की तरफ कोई आंख उठाकर न देख सके। इसके लिए विभाग को अपने खुफिया तंत्र को मजबूत करना होगा, तभी उसे कुछ सफलता मिल सकती है। इसमें ग्रामीणों को विश्र्वास में लेकर कार्य करने की जरूरत है। अफसरों को समझना होगा कि सिर्फ मुख्यालय में बैठकर ही काम चलने वाला नहीं है, क्योंकि जंगल और वहां रहने वाले वन्य जीव यहां की धरोहर हैं।
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